गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

दिल्ली-झुंझनु-सालासर-खाटू-दिल्ली, यात्रा भाग- 4

दिल्ली से कल रवाना होकर झुंझनु में रानी सती जी के दर्शन करने और सालासर तक पहुँचने, वहाँ भीड़ भाड होने के बावजूद जगह वगैरह मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई. साथ के बालक-बालिका भी स्वस्थ-प्रसन्न रहे, यानी हर जगह और समय प्रभू की कृपा बनी रही. रात भी अच्छी कटी....................अब आगे :-   
18.10.13. 
सुबह नींद तो जल्द खुल गयी थी फिर भी थोड़ी सुस्ती बनी हुई थी.  उधर सालासर कस्बा शायद सोया ही नहीं था.  वैसे ही ठठ्ठ के ठठ्ठ लोग उमड़े पड रहे थे. पता ही नहीं चल पा रहा था कि कौन आ रहा है और कौन दर्शन पा जा रहा है.  करीब एक किलो मीटर पीछे हनुमान जी की माँ अंजनी देवी का मंदिर है, करीब वहीं से मार्ग दो सडकों में बंट जाता है, छोटी सड़क बालाजी के मुख्य मंदिर की और चली जाती है तथा दूसरी, अपेक्षाकृत बड़ी  सुजानगढ़ की तरफ निकल जाती है.  हमारा सेवा सदन जो कस्बे के बाहरी हिस्से में स्थित है उसका मुख्य द्वार  सुजानगढ़ वाली सड़क पर था. इधर ही इतना हुजूम था तो कस्बे के अन्दर की क्या हालत होगी उसका अंदाजा ही लगाया जा सकता था.  बाहर का शोर-शराबा देखने के लिए हम सदन की छत पर जा खड़े हुए.
सुहानी सुबह 
सदन की खूबसूरत छत 
छत पर लगे सौर ऊर्जा संयत्र 
सिर्फ मंदिर के कारण रंग बदलता सालासर 
दूर-दूर तक विरानगी 
छत से उतर कमरे की और जाते हुए 
सदन का प्रांगण 
वहाँ से मंदिर वाली सड़क तो नहीं दिख रही थी पर इस तरफ का नजारा साफ था. कस्बे के अन्दर की पार्किंग, वहाँ का बस अड्डा, धर्मशालाओं-होटलों की जगहों के अलावा हर वह जगह जहां गाड़ी खडी होने की थोड़ी भी गुंजायश थी, सब ठसाठस भरने के बाद इस तरफ भी गाड़ियों का रेला लगा हुआ था.  सुबह-सुबह आकाश साफ था, मौसम सुहाना था. पर समय के साथ-साथ गरमी बढ़ती जा रही थी. सदन के सामने एक टीला था जिस पर लोग चढ़-उतर, आ-जा रहे थे. समझने में ज्यादा वक्त नहीं लगा कि प्रकृति की पुकार के निवार्णार्थ उधर लोगों का मजमा लगा हुआ है. भगवान ने यह भी क्या जरूरत बनाई है :-). 
सदन के मुख्य द्वार पर खडी गाड़ियां 
बेतरतीबी 
टीला जहां पचासों हजार ने सकून पाया 
सालासर से सुजानगढ़ 34 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है वहाँ से करीब 10-12 किलो मीटर की दूरी पर एक पहाडी पर हनुमान जी का एक और मंदिर "डूंगर बाला जी" के नाम से स्थित है. सालासर की भीड़-भाड को देख यह तय हो पाना मुश्किल हो रहा था कि पहले कहाँ जाया जाए. एक सोच थी कि मेले का अंतिम दिन होने के कारण शायद आज दोपहर-शाम तक भीड़ और गर्मी कम हो जाए तब तक डूंगर बालाजी हो आते हैं. पर साथ ही आशंका थी की शाम को भीड़ और बढ़ गयी तो? इस तो का उत्तर हल नहीं हो पा रहा था. फिर यही तय रहा कि पहले यहीं बालाजी के दर्शन कर फिर आगे बढ़ा जाए. 

स्थानीय लोगों की सलाह पर कैमरा, पर्स, बैग इत्यादि सब कमरे में ही छोड़ दिया गया. सदन के बगल से निकलती एक पतली गली से जब मंदिर जाने वाले मार्ग पर पहुंचे तो...........फिर तो क्या !!!  वहाँ तो सैलाब था, मुंड ही मुंड, नर-नारी-अबाल-वृद्ध, भक्तों की रेलम-पेल. आदमी पर आदमी चढ़ा हुआ. उसी भीड़ में वे भी थे जिन्होंने  हर दो कदम चल फिर साष्टांग लेट कर फिर दो कदम चल प्रभू के दर्शनों का संकल्प लिया हुआ था। यह नजारा तो मुख्य मंदिर से एक किलो मीटर पहले का था. इधर धूप की तपिश भी तेज होती जा रही थी. सुनने में आ रहा था कि रात दो बजे के लाईन में लगे लोगों का नंबर अब आ रहा है. बड़ों की तो कोई बात नहीं थी पर बच्चों की चिंता होनी शुरू हो गयी थी.  हम लाईन में लगने के बारे में सोच रहे थे पर प्रभू ने हमारे लिए शायद कुछ और ही सोच रखा था. कुछ गरमी कुछ परेशानी के कारण सुश्री अलका जी का सर दर्द हो रहा था,पता लगा मंदिर के पिछवाड़े मंदिर समिति के लोग दवाईयां वगैरह ले कर बैठे हुए है। वहीं उन लोगों ने पर्ची कटवा कर दर्शन करने की सुविधा के बारे में बताया।  उन्हीं के सुझाव पर 1000 रुपये की पर्ची कटवाई गयी और उसके द्वारा निर्धारित लाईन में लग गये. लाईन जरूर छोटी थी पर भीड़ वैसी ही थी. आप अपने शरीर की हरकत से आगे नहीं बढ़ रहे थे रेला आपको आगे ले जा रहा था. यहाँ फंस कर पता चल रहा था की भीड़ में गिर जाने पर लोग कैसे हताहत होते हैं. सांस लेना भी दूभर हो रहा था. जैसे-तैसे बालाजी के सामने पहुंचे, प्रसाद चढ़ाया, नाम आँखों से प्रणाम किया और बीस मिनट में दर्शन कर बाहर भी आना हो गया. पर मन में कहीं एक अपराध बोध ने भी सर उठा लिया था. बार-बार यह मन में आ रहा था कि पैसे दे कर दर्शन करना क्या उचित था. इस बात का सदा विरोधी रहा हूँ.  लाईन चाहे कहीं भी कैसी भी लगी हो उसे तोड़ना, लांघना या अनुचित तरीके से काम निकालना ना कभी किया और ना ही करने दिया। फिर आज ऐसा कैसे हो गया. फिर बच्चों का ध्यान आया, इस जन सैलाब में उनका क्या हाल होता, शायद यही सोच प्रभू ने खुद ही यह मार्ग दिखला दिया हो। 

जो भी हो सब प्रभूइच्छा समझ फिर सदन लौटे, कुछ देर सुस्ता एक-एक कप चाय ले कुछ तारो-ताजा हो डूंगर बालाजी के दर्शन हेतु रवाना हो गये.  

1 टिप्पणी:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सुन्दर चित्र..आधुनिक तकनीक..

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